रोग नियंत्रण परियोजनाएं
एफएमडी पायलट योजना, ऊटी (1982-85)
- इसकी शुरूआत ऊटी, नीलगिरी, जिला तमिलनाडु में हुई
- इस परियोजना के परिणामों से उत्साहित होकर इसे तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल के आस-पास के 29 जिलों में बढ़ाया गया
- इसके प्रमुख घटक थे:
o कान में टैग लगाना
o छ: महीने में टीकाकरण (गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर)
o टीकाकरण के पश्चात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की निगरानी
o प्रकोप नियंत्रण और स्ट्रेन डिफरेंशिएशन
o एफएमडी-सीपी के लिए मार्ग प्रशस्त किया
एफएमडी नियंत्रण के लिए पशु रोग नियंत्रण परियोजना (एडीसीपी) – केरल (2004-09)
- इस परियोजना में केरल के 11 जिले (एफएमडी-सीपी में शामिल नहीं थे) शामिल थे । सरकार के एफएमडी-सीपी द्वारा तीन अन्य दक्षिणी जिलों को शामिल किया गया
- मार्च 2009 तक सामूहिक टीकाकरण के पांच दौर में सभी अतिसंवेदनशील प्रजातियों (गाय, भैंस, भेड़, सूअर) को कवर किया गया
- इसके प्रमुख घटक थे:
o सामूहिक टीकाकरण और कान टैगिंग द्वारा पशु की पहचान
o प्रकोप प्रबंधन
o सीरो निगरानी
o विस्तार और प्रचार
o पशु संचलन प्रबंधन
o सूचना प्रबंधन
o जनशक्ति विकास
o महामारी विज्ञान अध्ययन
- इस उद्देश्य के लिए एक अलग परियोजना प्रबंधन इकाई स्थापित की गई थी
- कोल्ड चेन बनाए रखनेके लिए राज्य में विभिन्न स्थानों पर वॉक-इन कूलर जनरेटर बैकअप के साथ स्थापित किए गए थे
- सीरो निगरानी के लिए राज्य में तीन प्रयोगशालाओं को सुदृढ़ किया गया
- एफएमडी वायरस के तीनों प्रकारों के प्रति झुंड में प्रतिरक्षा का स्तर जानने के लिए प्रत्येक टीकाकरण के बाद नियमित तौर पर सीरो निगरानी की जाती थी
- 1998-2004 तक, पूर्व परियोजना में प्रकोप, प्रभावित पशुओं और पशुओं की मृत्यु संबंधी आंकड़ों की औसत संख्या क्रमश:611, 8225 तथा 92 थी
- परियोजना के चरण 2004-09) के दौरान उक्त आंकड़ों के औसत में अचानक 91, 816 और 41 तक की कमी आई
- परियोजना की कुल लागत 34.18 करोड़ रूपये थी जिसमें एनडीडीबी (24.98 करोड़), कर्नाटक सरकार (6.96 करोड़) तथा भारत सरकार (2.24 करोड़) का योगदान था
- किसानों और सरकारों के योगदान से बने कोष से रोग के नियंत्रण हेतु एक स्वयं स्थाई मॉडल (सेल्फ सस्टेंड मॉडल) बनाया गया था
- परियोजना के अंत (मार्च 2009) तक उपरोक्त दिए गए योगदान से 17.15 करोड़ रूपये का एक कोष बनाया गया था
ब्रूसेला नियंत्रण के लिए पायलट परियोजना (2013-18)
- इसे निम्नलिखित तीन चरणों में लागू किया गया है:
- क्षेत्र परिस्थितियों में – कच्छ में 250 गांवों को कवर किया जाएगा, यह गांव में अपनाए जाने वाली रणनीति को प्रतिबिंबित करेगा ।
- वीर्य केन्द्र के आस-पास जो रोग मुक्त वीर्य के उत्पादन के संबंध में महत्वपूर्ण है तथा;
- एक संघठित डेरी समूह में ।
- इसके मुख्य घटक हैं:
o टीकाकरण एवं कान टैगिंग द्वारा पहचान
o विस्तार और जागरूकता निर्माण
o जनशक्ति विकास
o गांवों में दूध रिंग परीक्षण
o आरबीपीटी एवं एलीसा द्वारा सीरो निगरानी
o संक्रमित परिसरों को कीटाणु रहित बनाना
o संक्रमित सामग्री का निपटान
o संक्रमित पशु का प्रबंधन
- प्रयोग में आसानी के लिए फिलिंडर्स टेक्नोलॉजी एसोसिएट (एफटीए) कार्ड का प्रयोग करके संदिग्ध संकलित नमूनों का क्षेत्र परीक्षण किया जा रहा है
- प्रयोग में आसानी के लिए नई नैदानिक पद्धति जैसे लेटरल फ्लो ऐसे (एलएफए) का भी क्षेत्र परीक्षण किया जा रहा है
- यह रोग जूनोटिक रोग होने के कारण मानव पर बहुत प्रभाव डालता है इसलिए नियंत्रण हेतु समृद्ध दृष्टिकोण विकसित करने के लिए मानव चिकित्सक, पशु चिकित्सक, पैरावेट, किसानों और अन्य हितधारकों के बीच संपर्क स्थापित किया जा रहा है
- यह क्षेत्र नियंत्रण मॉडल यदि सफल पाया गया तो, देश के अन्य भागों में भी इसे दोहराया जा सकता है जहां ब्रोसेलोसिस प्रमुख चिंता का विषय है
थनैला (मसटाइटिस) नियंत्रण पर पायलट परियोजना (2014-16)
- यह परियोजना अक्तूबर 2014 से साबरकांठा दूध संघ में लागू की जा रही है
- ऐसे पचास गांवों में जहां बैल उत्पादन की योजना कार्यान्वित है वहां उत्पादकता बढ़ाने के लिए 25 प्रगतिशील डेरी बनाए जा रहे हैं
- इस परियोजना का उद्देश्य थनैला के महत्व को बताता है जो नैदानिक एवं क्रोनिक फार्म की तुलना में ज्यादा नुकसानदेह है और जिसका निदान एवं उपचार करने से किसान को कैसे लाभ बढ़ाने में मदद मिल सकती है